कंगना रनौत की ‘इमरजेंसी’: जानें कैसी है यह फिल्म
17 जनवरी को रिलीज़ हुई कंगना रनौत की फिल्म इमरजेंसी ने दर्शकों और आलोचकों के बीच मिश्रित प्रतिक्रियाएं हासिल की हैं। फिल्म में कंगना रनौत पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भूमिका में नजर आई हैं, जबकि अनुपम खेर ने भी अहम भूमिका निभाई है। यह फिल्म 1970 के दशक में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल की पृष्ठभूमि पर आधारित है। हालांकि रिलीज़ से पहले ही फिल्म विवादों में घिरी रही, कांग्रेस और एसजीपीसी जैसे संगठनों ने फिल्म पर सवाल उठाए और बैन की मांग की।
कहानी और प्रस्तुति
फिल्म की शुरुआत 1929 में आनंद भवन से होती है। इंदिरा गांधी के शुरुआती जीवन, उनके पिता जवाहरलाल नेहरू और पति फिरोज गांधी के साथ उनके रिश्तों के तनाव को फिल्म के शुरुआती दृश्यों में दिखाया गया है। इमरजेंसी के दौर से पहले की राजनीतिक परिस्थितियों, संजय गांधी की भूमिका और बांग्लादेश बनाने के प्रयासों को विस्तार से दिखाने की कोशिश की गई है।
हालांकि, फिल्म की पटकथा कहीं-कहीं बेहद ड्रामेटिक और असंतुलित लगती है। कहानी के साथ-साथ इंदिरा गांधी की निजी और राजनीतिक जिंदगी को एक नेगेटिव छवि में प्रस्तुत किया गया है। अपोजिशन लीडर्स को अधिक उभरते हुए दिखाया गया है, जबकि इंदिरा गांधी को कमजोर और असुरक्षित रूप में दिखाने का प्रयास किया गया है।
अभिनय और निर्देशन
कंगना रनौत का लुक और गेटअप इंदिरा गांधी के रूप में काफी अच्छा है, लेकिन उनकी आवाज़ में नकलीपन दर्शकों को निराश कर सकती है। कुछ दृश्यों में कंगना ने बेहतरीन अभिनय किया है, लेकिन संपूर्ण फिल्म में उनका प्रदर्शन औसत से ऊपर नहीं उठ पाता।
संजय गांधी के किरदार में विशाक नायर का काम सराहनीय है, जबकि सैम मानेकशॉ के रूप में मिलिंद सोमन अपने किरदार में फिट नजर आते हैं। अनुपम खेर, जो हमेशा अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं, फिल्म में दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
सिनेमेटोग्राफी और स्क्रिप्ट
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी औसत है, जबकि स्क्रिप्ट कमजोर लगती है। फिल्म को एक सधी हुई पटकथा की जरूरत थी, ताकि बड़ी घटनाओं के बैकग्राउंड और इमरजेंसी के दौर के इतिहास को न्याय मिल सके। खासतौर पर अटल बिहारी वाजपेयी और जगजीवन राम जैसे नेताओं के संसद में गाना गाने के दृश्य दर्शकों को अविश्वसनीय लग सकते हैं।
फिल्म का प्रभाव
इमरजेंसी न तो पूरी तरह मनोरंजन करती है और न ही इतिहास से न्याय करती है। पहले हाफ की तुलना में दूसरा हाफ बेहतर है, लेकिन फिल्म कहीं भी पूरी तरह बांधने में असफल रहती है। कंगना जहां खुद को केंद्र में रखती हैं, वहां फिल्म ठीक लगती है, लेकिन कई जगह फिल्म मज़ाक का रूप ले लेती है।
निष्कर्ष
फिल्म की कास्टिंग और विषय अच्छा होने के बावजूद, इसकी कमजोर पटकथा और निर्देशन इसे प्रभावी फिल्म बनने से रोकते हैं। हालांकि, अगर आप कंगना रनौत या भारतीय राजनीति के इस ऐतिहासिक दौर में रुचि रखते हैं, तो इसे एक बार देख सकते हैं .