पिंडारी ग्लेशियर, जो उत्तराखंड के प्रमुख ग्लेशियरों में से एक है, पिछले 60 वर्षों में आधे किलोमीटर से अधिक पीछे खिसक चुका है। यह जानकारी पद्मश्री अनूप साह (75) ने अपनी हालिया यात्रा के दौरान दी, जिसमें वे छायाकार धीरेंद्र बिष्ट (63) के साथ शामिल थे। दोनों ने पिंडारी की ट्रैकिंग के अनुभव साझा करते हुए ग्लेशियर की स्थिति को चिंताजनक बताया।
ग्लेशियर का बदलता रूप
अनूप साह ने बताया कि जब उन्होंने 1964 में पहली बार पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा की थी, तब जीरो प्वाइंट पर बर्फ की एक मोटी चादर फैली रहती थी। अब वहां केवल भुरभुरे पहाड़ नजर आते हैं। यह स्पष्ट है कि ग्लेशियर धीरे-धीरे पीछे खिसकता जा रहा है, जिससे पर्यावरणविदों की चिंताएं बढ़ गई हैं। साह ने कहा, “ग्लेशियर के पीछे खिसकने का प्रभाव न केवल पर्यावरण पर बल्कि स्थानीय वन्यजीवों पर भी पड़ रहा है।”
वन्यजीवों पर प्रभाव
अनूप साह और धीरेंद्र बिष्ट ने बताया कि पहले इस क्षेत्र में थार, भरल, सांभर, घुरड़, काकड़, सैटायर, ट्रैंगोपान, मोनाल और पहाड़ी तीतर जैसे पक्षी और जानवर सामान्यतः दिखाई देते थे। लेकिन अब उनका दिखना दुर्लभ हो गया है। उन्होंने यह भी बताया कि हिम तेंदुआ और भालू जैसे जानवर अब चरवाहों की भेड़ों और घोड़ों पर हमले कर रहे हैं। इसके अलावा, क्षेत्र की वनस्पतियों में भी बदलाव आ रहा है, जिससे सालम पंजा, सालम मिश्री, अतीस, और कुटकी जैसी जड़ी-बूटियाँ मुश्किल से मिल रही हैं।
निर्माण कार्य का पर्यावरण पर असर
यात्रा के दौरान, साह और बिष्ट ने ट्रैकिंग रूट पर निर्माण कार्य में सीमेंट और कंक्रीट के उपयोग को देखा, जो ग्लेशियर की सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। उनका मानना है कि इन निर्माण कार्यों में स्थानीय संसाधनों जैसे बांस और रिंगाल का उपयोग करना चाहिए। इससे न केवल ग्लेशियर को सुरक्षित रखा जा सकेगा, बल्कि क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता भी बनी रहेगी।
ट्रैकिंग मार्ग में बदलाव
अनूप साह ने बताया कि पहले कपकोट से पिंडारी तक की दूरी 115 किलोमीटर थी, लेकिन अब खाती तक वाहन सुविधा उपलब्ध होने से यह दूरी घटकर 31 किलोमीटर रह गई है। हालांकि, यह मार्ग पहले की तुलना में अधिक कठिन हो गया है। भूस्खलन के कारण खाती से द्वाली तक की दूरी में करीब तीन किलोमीटर की वृद्धि हो गई है, जिससे यात्रा चुनौतीपूर्ण हो गई है।
अनुभव साझा करना
अनूप साह ने अब तक 11 बार पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा की है, जबकि धीरेंद्र बिष्ट की यह यात्रा 38 साल बाद हुई। उन्होंने 1994 में ट्रेल पास, 1972 और 2023 में बल्जूरी चोटी और 1972 में नंदा खाट की सफल यात्रा की है। दोनों छायाकारों ने 16 अक्टूबर को रानीखेत से अपनी यात्रा शुरू की और 20 अक्टूबर को जीरो प्वाइंट पर पहुंचे। 22 अक्टूबर को वे बागेश्वर वापस लौटे, जहां उन्होंने अपने अनुभवों को साझा किया।
यह यात्रा न केवल ग्लेशियर के परिवर्तन की कहानी बताती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि मानव गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन का असर हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर कैसे पड़ रहा है। ऐसे में स्थानीय और वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है ताकि हम इन अनमोल संसाधनों को बचा सकें।